लालीगुरांश (सिर्जना भण्डारी)
कभि सुबहकी किरणोंमें
कभि वादलको छावमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि सामके झिलमिलमें
कभि रातके सन्नटामें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि प्रकृतिके हरयालीमें
कभि पतझडके मौसमोमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि दुनियाँके भिडमें
कभि अपनी खामोसीमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि सहेलीयोंके  छेडछाडमें
कभि अपनी लज्जामें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि वाहरके सुखमें
कभि अन्दरके  आनन्दमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि यादोंके नदिमें
कभि कल्पनाओंके झिलमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
कभि अपने प्यारमें
कभि तुम्हारी प्यासमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
हाँ, हर जगह
हर उन पलोंमें
मै तुझेही ढुंढतीहुँ !
वस, तुझेही ढुढतीहूँ !!
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